कोई चट्टान हथोड़े की पहली चोट से नहीं टूटती ,हथोड़े का एक-एक वार उसे कमजोर करता है और आखरी चोट उसे बिखेर देती है, बदलाव लाने का ये कुदरती उसूल है, हर छोटा क़दम दुरिओं को कम करके मंजिल को क़रीब लाता है अब जिस तरेह चट्टान को तोड़ने के लिए पहली चोट जरूरी थी और खास अहमियत वाली थी, इसी तरेह मंजिल की तरफ उठने वाला पहला क़दम हमें मंजिल की तरफ ले जाता है ,
मौजूदा सामाजिक और राजनेतिक बदलाव के लिए उठने वाले क़दम अपनी मंजिल की तरफ बढ़ रहे हैं, इंडोनेशिया से लेकर उत्तरी अफ्रीका के मराकश तक सारी मुस्लिम दुनिया में उठने वाले इस तूफ़ान का तो सबको इल्म है कई दशको से जडें जमाये तानाशाहों के जुल्म से तंग आई जनता की क्रांति है लेकिन क्या हम मीडिया की उस मुहीम पर गौर ना करें जो पहले दिन से ही अपनी 'जिम्मेदारी' बखूबी निभा रही है जो पश्चिमी देशो और अमेरिका की मंशा के मुताबिक है इस इन्कलाब को हर खबर और अख़बार ने इतना जोरदर तरीके से पेश नहीं किया जितनी मेहनत से ये मीडिया इसको लोकतंत्र की शुरुआत और जनता द्वारा लोकतंत्र की मांग कहकर प्रचारित किया जा रहा है क्या कोई ये बतायेगा की इनसे किसने कहा की वहां की जनता अपने जालिम शासको से छुटकारा पाने के लिए लोकतंत्र की मांग कर रही है, गोरतलब है की इन मुल्को में जहाँ ये बगावतें और उथल पुथल मची है खालिस आवामी इन्किलाब है कोई खास सियासी जमात या कोई एक लीडर इनकी रहनुमाई नहीं कर रहा है फिर इन लोगो (मीडिया) से 'किसने' कहा कि यहाँ के लोग अब लोकतान्त्रिक व्यवस्था चाहते है, पहली बात तो ये की अमेरिका और यूरोप का ये लोकतंत्र प्रेम पिछले ४०-५० साल से कहाँ चला गया था, ये लोग क्यों इन तानाशाहों को पसंद करते थे, इसलिए की ये जालिम तानाशाह अपनी जनता का खून निचोड़ कर अमेरिका और उसके गिरोह की प्यास बुझा रहे थे,
अकूत उर्जा के भंडार लिए ज़मीन का ये हिस्सा जो इन लोकतंत्र के मदारियों की जंगी हवस का मैदान था, आज ज़ालिम और अयाश तानाशाओ से ज्यादा उस पुरस्रार सियासी खेल से निजात चाहता है जो ये लोकतंत्र के खिलाड़ी उपनिवेशिक काल से खेल रहे थे,
अब जबकि अवाम ने बगावत और तख्ता पलट शुरू किया तो कर्नल गद्दाफी, बिन अली और हुस्नी मुबारक, असद, सब अमेरिका को बुरे लगने लगे और इनका लोकतंत्र प्रेम अचानक जाग उठा और कुछ जगहों पर अमेरिका और नाटो ने अमन कायम करने और लोकतंत्र की स्थापना करने के लिये लोगों की हत्याएं करनी शुरू भी कर दी हैं ,
लेकिन क्या वाकई मुस्लिम मुल्कों की जनता लोकतंत्र की मांग कर रही है,
एक ऐसी वयवस्था की जिसने अपने ५०-६० साल के इतिहास में अमेरिका, भारत और अपने इजादकर्ता यूरोप को मानव इतिहास के सबसे बुरे दोर में पहुंचा दिया है, आज़ादी के नाम पर एक ऐसा समाज बना दिया जो उन्मुक्तता (अश्लीलता) और नेतिक पतन की अंतिम पड़ाव पर है , जरा हम जमीन के उन हिस्सों पर नज़र डालते हैं जहाँ पर लोकतांत्रिक व्यवस्था है. भारत, जहाँ इस सिस्टम पर गर्व किया जाता है, इस युग की वो कौन सी बुराई है जो यहाँ नहीं फल फुल रही, गरीबी बेरोज़गारी भुकमरी भ्रष्टाचार, बलात्कार, चोरी डकेती, आतंकवाद साम्प्रदायिकता और वो सब जो इंसानों के लिए बुरा है,
जुर्म की तमाम किस्में इस सिस्टम की देन यहाँ मोजूद हैं, चुनाव के नाम पर यहाँ क्या क्या होता है ये बताने की जरूरत नहीं संसद में सरकार बनाने और गिराने के लिए जनता के प्रतिनिधि कुत्ते बिल्लिओं की तरेह बिकते हैं .समाज पर निगाह डालें लूट बलात्कार अपहरण तो अब खास समस्या में नहीं गिनी जाती, बल्कि सम्लेंगिकता को हमारे सिस्टम ने जाईज़ करार दे दिया है,
ये हालत उन सभी मुल्कों के हैं जहाँ ये लोकतान्त्रिक सिस्टम है.
क्या ऐसा सिस्टम जो इंसानियत के लिए नुकसानदेह साबित हो चूका है , अरबों और तमाम दुनिया के मुसलमानों का भला करेगा ?,
या फिर मीडिया और UNO के झूट की वजह से ये संगठन( यु एन ओ ) फिर से अपने गुलाम हुक्मरान इन मुल्कों पर थोप देंगे और जिस सिस्टम को बेचारी अवाम ने अपना खून बहा कर ख़त्म किया था वो फिर पिछले दरवाजे से उनपर थोप दिया जायेगा ? जिस सिस्टम को अवाम ने अपनी जानें देकर ख़त्म किया है वो दुसरे तरीके (जम्हूरियत) से फिर उनके उपर थोप दया जायेगा ,
अब बात फिर उन मुस्लिम देशों की करते हैं,
तानाशाही और राजशाही को ख़त्म करने के बाद जेसे ही जनता रहत की साँस लेगी और अपना मुस्तकबिल अपने हाथ से संवारने की कोशिश करेगी उससे पहले ही अमेरिकी और यूरोपी डेमोक्रेटिक रायबाज़ काहिरा, त्रिपोली और दमिश्क के हवाई अड्डों पर उतरना शुरू हो जायेंगे , क्योंकि जमीन के इस सबसे जरखेज इलाके को ये लोग यहाँ की अवाम के हवाले नही कर सकते, ये जानते हैं की अगर यहाँ के अवाम ने अपनी मर्जी का सयासी निजाम (शरियत या खिलाफत) लागु कर दीया तो उन्हें यहाँ से अपना सामान बंधना पड़ सकता है,
पर अब सवाल ये उठता है की इस अरब अवाम के पास वो कोन सी राजनेतिक विचारधारा है जो इन्हें जम्हूरियत की लानत से बचाएगी, वो कोनसा निजाम है जो इस इलाके को सुकून बख्शेगा क्या इनके पास गैरों के दिए सिस्टम डेमोक्रेसी के आलावा कोई और रास्ता नहीं, क्या इनका हल आसमान से गिरे तो खजूर में अटके वाला हो जायेगा ,या फिर अब इनके दिमाग को किसी ऐसे निजाम ने रोशन कर दिया है जिसने माज़ी में न सिर्फ अरबों बल्कि तमाम इंसानियत को नेकी, अमनो सुकून और तरक्की की राह दिखाई थी,
ये बात गोर करने वाली है की मिस्र के मुसलमानों ने बिना किसी मसलकी तफरीक के नमाज़ के वक़्त क़िबला रुख होकर एक ही इमाम के पीछे नमाज़ पढ़ी न सुन्नी न कोई शिया न कोई अरबी न कोई अजमी न कोई मसलक न कोई मकतब वहाँ मोजूद हर इन्सान सिर्फ मुस्लमान था, अपने रब के आगे सजदा ज़ेर और दुआ गो,
बहरहाल उनकी मेहनतें रंग ला रहीं हैं उमर मुख़्तार के बच्चे लड़ रहे हैं, इब्ने वलीद के बेटे नींद से जाग रहे हैं, मुहम्मद बिन क़ासिम की औलादें अमीर-ए-काफ़िला के हुक्म के इन्तिज़ार में हैं और तहरीर स्क्वायर की जमीन सोच रही है की मेरे सीने को सजदों से पाक करने वाले, क्या वो निज़ाम भी लायेंगे जिसका ये नमाज़ हुक्म दे रही है,
मौजूदा सामाजिक और राजनेतिक बदलाव के लिए उठने वाले क़दम अपनी मंजिल की तरफ बढ़ रहे हैं, इंडोनेशिया से लेकर उत्तरी अफ्रीका के मराकश तक सारी मुस्लिम दुनिया में उठने वाले इस तूफ़ान का तो सबको इल्म है कई दशको से जडें जमाये तानाशाहों के जुल्म से तंग आई जनता की क्रांति है लेकिन क्या हम मीडिया की उस मुहीम पर गौर ना करें जो पहले दिन से ही अपनी 'जिम्मेदारी' बखूबी निभा रही है जो पश्चिमी देशो और अमेरिका की मंशा के मुताबिक है इस इन्कलाब को हर खबर और अख़बार ने इतना जोरदर तरीके से पेश नहीं किया जितनी मेहनत से ये मीडिया इसको लोकतंत्र की शुरुआत और जनता द्वारा लोकतंत्र की मांग कहकर प्रचारित किया जा रहा है क्या कोई ये बतायेगा की इनसे किसने कहा की वहां की जनता अपने जालिम शासको से छुटकारा पाने के लिए लोकतंत्र की मांग कर रही है, गोरतलब है की इन मुल्को में जहाँ ये बगावतें और उथल पुथल मची है खालिस आवामी इन्किलाब है कोई खास सियासी जमात या कोई एक लीडर इनकी रहनुमाई नहीं कर रहा है फिर इन लोगो (मीडिया) से 'किसने' कहा कि यहाँ के लोग अब लोकतान्त्रिक व्यवस्था चाहते है, पहली बात तो ये की अमेरिका और यूरोप का ये लोकतंत्र प्रेम पिछले ४०-५० साल से कहाँ चला गया था, ये लोग क्यों इन तानाशाहों को पसंद करते थे, इसलिए की ये जालिम तानाशाह अपनी जनता का खून निचोड़ कर अमेरिका और उसके गिरोह की प्यास बुझा रहे थे,
अकूत उर्जा के भंडार लिए ज़मीन का ये हिस्सा जो इन लोकतंत्र के मदारियों की जंगी हवस का मैदान था, आज ज़ालिम और अयाश तानाशाओ से ज्यादा उस पुरस्रार सियासी खेल से निजात चाहता है जो ये लोकतंत्र के खिलाड़ी उपनिवेशिक काल से खेल रहे थे,
अब जबकि अवाम ने बगावत और तख्ता पलट शुरू किया तो कर्नल गद्दाफी, बिन अली और हुस्नी मुबारक, असद, सब अमेरिका को बुरे लगने लगे और इनका लोकतंत्र प्रेम अचानक जाग उठा और कुछ जगहों पर अमेरिका और नाटो ने अमन कायम करने और लोकतंत्र की स्थापना करने के लिये लोगों की हत्याएं करनी शुरू भी कर दी हैं ,
लेकिन क्या वाकई मुस्लिम मुल्कों की जनता लोकतंत्र की मांग कर रही है,
एक ऐसी वयवस्था की जिसने अपने ५०-६० साल के इतिहास में अमेरिका, भारत और अपने इजादकर्ता यूरोप को मानव इतिहास के सबसे बुरे दोर में पहुंचा दिया है, आज़ादी के नाम पर एक ऐसा समाज बना दिया जो उन्मुक्तता (अश्लीलता) और नेतिक पतन की अंतिम पड़ाव पर है , जरा हम जमीन के उन हिस्सों पर नज़र डालते हैं जहाँ पर लोकतांत्रिक व्यवस्था है. भारत, जहाँ इस सिस्टम पर गर्व किया जाता है, इस युग की वो कौन सी बुराई है जो यहाँ नहीं फल फुल रही, गरीबी बेरोज़गारी भुकमरी भ्रष्टाचार, बलात्कार, चोरी डकेती, आतंकवाद साम्प्रदायिकता और वो सब जो इंसानों के लिए बुरा है,
जुर्म की तमाम किस्में इस सिस्टम की देन यहाँ मोजूद हैं, चुनाव के नाम पर यहाँ क्या क्या होता है ये बताने की जरूरत नहीं संसद में सरकार बनाने और गिराने के लिए जनता के प्रतिनिधि कुत्ते बिल्लिओं की तरेह बिकते हैं .समाज पर निगाह डालें लूट बलात्कार अपहरण तो अब खास समस्या में नहीं गिनी जाती, बल्कि सम्लेंगिकता को हमारे सिस्टम ने जाईज़ करार दे दिया है,
ये हालत उन सभी मुल्कों के हैं जहाँ ये लोकतान्त्रिक सिस्टम है.
क्या ऐसा सिस्टम जो इंसानियत के लिए नुकसानदेह साबित हो चूका है , अरबों और तमाम दुनिया के मुसलमानों का भला करेगा ?,
या फिर मीडिया और UNO के झूट की वजह से ये संगठन( यु एन ओ ) फिर से अपने गुलाम हुक्मरान इन मुल्कों पर थोप देंगे और जिस सिस्टम को बेचारी अवाम ने अपना खून बहा कर ख़त्म किया था वो फिर पिछले दरवाजे से उनपर थोप दिया जायेगा ? जिस सिस्टम को अवाम ने अपनी जानें देकर ख़त्म किया है वो दुसरे तरीके (जम्हूरियत) से फिर उनके उपर थोप दया जायेगा ,
अब बात फिर उन मुस्लिम देशों की करते हैं,
तानाशाही और राजशाही को ख़त्म करने के बाद जेसे ही जनता रहत की साँस लेगी और अपना मुस्तकबिल अपने हाथ से संवारने की कोशिश करेगी उससे पहले ही अमेरिकी और यूरोपी डेमोक्रेटिक रायबाज़ काहिरा, त्रिपोली और दमिश्क के हवाई अड्डों पर उतरना शुरू हो जायेंगे , क्योंकि जमीन के इस सबसे जरखेज इलाके को ये लोग यहाँ की अवाम के हवाले नही कर सकते, ये जानते हैं की अगर यहाँ के अवाम ने अपनी मर्जी का सयासी निजाम (शरियत या खिलाफत) लागु कर दीया तो उन्हें यहाँ से अपना सामान बंधना पड़ सकता है,
पर अब सवाल ये उठता है की इस अरब अवाम के पास वो कोन सी राजनेतिक विचारधारा है जो इन्हें जम्हूरियत की लानत से बचाएगी, वो कोनसा निजाम है जो इस इलाके को सुकून बख्शेगा क्या इनके पास गैरों के दिए सिस्टम डेमोक्रेसी के आलावा कोई और रास्ता नहीं, क्या इनका हल आसमान से गिरे तो खजूर में अटके वाला हो जायेगा ,या फिर अब इनके दिमाग को किसी ऐसे निजाम ने रोशन कर दिया है जिसने माज़ी में न सिर्फ अरबों बल्कि तमाम इंसानियत को नेकी, अमनो सुकून और तरक्की की राह दिखाई थी,
ये बात गोर करने वाली है की मिस्र के मुसलमानों ने बिना किसी मसलकी तफरीक के नमाज़ के वक़्त क़िबला रुख होकर एक ही इमाम के पीछे नमाज़ पढ़ी न सुन्नी न कोई शिया न कोई अरबी न कोई अजमी न कोई मसलक न कोई मकतब वहाँ मोजूद हर इन्सान सिर्फ मुस्लमान था, अपने रब के आगे सजदा ज़ेर और दुआ गो,
बहरहाल उनकी मेहनतें रंग ला रहीं हैं उमर मुख़्तार के बच्चे लड़ रहे हैं, इब्ने वलीद के बेटे नींद से जाग रहे हैं, मुहम्मद बिन क़ासिम की औलादें अमीर-ए-काफ़िला के हुक्म के इन्तिज़ार में हैं और तहरीर स्क्वायर की जमीन सोच रही है की मेरे सीने को सजदों से पाक करने वाले, क्या वो निज़ाम भी लायेंगे जिसका ये नमाज़ हुक्म दे रही है,
I agree with you.
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