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Wednesday, August 26, 2009

दुनिया की एकमात्र सम्पूर्ण राजनितिक व्यवस्था "खिलाफत-इस्लामिया"




खिलाफ़त क्या है?
खिलाफत इस्लामी शरीयत के अहकामात को नाफिज़ करने और पूरी दुनिया के सामने इस्लाम की दावत को पेश करने के लिये तमाम मुसलमानो की एक आम हुकूमत का नाम है. इसी को इमामत भी कहते है. पस खिलाफत और इमामत का एक ही मआनी है और सहीह अहादीस मे यहाँ दोनो अलफाज़ (इस्तलाहात) एक हि मआनी मे इस्तेमाल हुऐ है. किसी भी शरई नस यानी क़ुरआन व सुन्नत मे इन दोनो लफ्ज़ो मे से किसी एक के मआनी दूसरे से मुख्तलिफ नही. क्योंकी नुसूसे शरईया ने इनको एक ही क़रार दिया है. इन अलफाज़ यानी इमामत या खिलाफत की लफ्ज़ी पाबन्दी ज़रूरी नही बल्की इनके मफहूम की पाबन्दी फर्ज़ है. खिलाफत का क़ायम करना पूरी दुनिया के तमाम मुसलमानो पर फर्ज़ है. और इसका क़याम उन दूसरे फराईज़ की अदाईगी कि तरह फर्ज़ है, जिनको अल्लाह (सुबहानहु वतआला) ने सब मुसलमानो पर फर्ज़ किया है.
यह एक हतमी (लाज़मी) फरीज़ा है जिसमे किसी किस्म की देरी या सुस्ती की कोई गुंजाईश नही है. इसकी इक़ामत मे कोताही करना उन बडे गुनाहों मे से एक गुनाह है, जिस पर अल्लाह सख्त अज़ाब देता है. तमाम मुसलमानो पर खिलाफत की इक़ामत की फर्ज़ियत की दलील किताबुल्लाह, सुन्नते रसूलुल्लाह (स्वललल्लाहो अलैहि वसल्लम) और इजमाऐ सहाबा से साबित है.
अल्लाह (सुबहानहु वतआला) ने रसूलुल्लाह (स्वललल्लाहो अलैहि वसल्लम) को हुक्म दिया है के मुसलमानो के दर्मियान अल्लाह के नाज़िल करदा अहकाम के मुताबिक़ फैसला करे और उसका हुक्म क़तई शकल (तलब जाज़िम) मे दिया गया है. अल्लाह (सुबहानहु वतआला) ने फरमाया:
]فَاحْكُمْ بَيْنَهُمْ بِمَا أَنْزَلَ اللَّهُ وَلا تَتَّبِعْ أَهْوَاءَهُمْ عَمَّا جَاءَكَ منَ الْحَقِّ[
“पस इन के दर्मियान अल्लाह के नाज़िल करदा (अहकामात) के मुताबिक़ फैसला करे और जो हक़ आप के पास आया है, उसके मुक़ाबले मे उनकी पैरवी ना करे.” (मायदा - 48)
]وَأَنِ احْكُمْ بَيْنَهُمْ بِمَا أَنْزَلَ اللَّهُ وَلا تَتَّبِعْ أَهْوَاءَهُمْ وَاحْذَرْهُمْ أَنْ يَفْتِنُوكَ عَنْ بَعْضِ مَا أَنْزَلَ اللَّهُ إِلَيْكَ[
“और यह की (आप स्वललल्लाहो अलैहि वसल्लम) इनके दर्मियान अल्लाह (सुबहानहू व तआला) के नाज़िल करदा (अहकामात) के मुताबिक़ फैसला करे और जो हक़ आप के पास आया है, उसके मुक़ाबले मे उनकी ख्वाहिशात की पैरवी ना करे और इनसे मोहतात रहे की कही यह (लोग) अल्लाह के नाज़िल करदा (बाज़) अहकामात के बारे मे आपको फितने मे ना डाल दे.” (मायदा - 49)
रसूलुल्लाह (स्वललल्लाहो अलैहि वसल्लम) से खिताब उम्मत के लिये भी है जब तक के इसमे आप (स्वललल्लाहो अलैहि वसल्लम) के साथ खास होने की दलील मौजूद ना हो. और यहॉ तखसीस की कोई दलील मौजूद नही. चुनाचे यह खिताब तमाम मुसलमानो के लिये भी है की वोह इस्लामी अहकामात को क़ायम करें और खलीफा के क़याम से मुराद भी यही है के हुकूमत और सुल्तान (शरई इख्तियार का हामिल शख्स) मुकर्रर किया जाऐ.
इसके अलावा अल्लाह (सुबहानहु वतआला) ने उलिलअम्र (साहिबे ईक्तिदार) कि इताअत को भी मुसलमानो पर फर्ज़ किया है. इससे मालूम होता है की मुसलमानो का उलिलअम्र होना चाहिऐ. इरशाद है:
]يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا أَطِيعُوا اللَّهَ وَأَطِيعُوا الرَّسُولَ وَأُولِي الأمْرِ مِنْكُمْ [
“ऐ ईमानवालों! अल्लाह और रसूल की इताअत करो और अपने उलिलअम्र (हुक्मरानो) की भी.” (निसा - 59)
अल्लाह कभी भी उस शख्स की इताअत का हुक्म नही देता जिसका वजूद ही ना हो. चुनाचे यह आयत इस बात पर दलालत करती है की उलिलअम्र का होना ज़रूरी है. क्योकि उलिलअम्र के वजूद पर शरई हुक्म का दारोमदार है, और उसके ना होने की सूरत मे शरई हुक्म ज़ाया हो जाता है. लिहाज़ा इसका वजूद फर्ज़ है.
खिलाफत की इक़ामत की फर्ज़ियत की दलील सुन्नते रसूलुल्लाह (स्वललल्लाहो अलैहि वसल्लम)से
मुस्लिम (रहमतुल्लाहि अलैह) ने नाफेअ से रिवायत करते है की उन्होने कहा की मुझ से इबने उमर ने बयान किया कि मैने रसूलुल्लाह (स्वललल्लाहो अलैहि वसल्लम) को यह फरमाते हुए सुना :
“जो शख्स अमीर की इताअत से अपना हाथ खेंच ले तो क़यामत के दिन वोह अल्लाह तआला से इस हाल मे मिलेगा की उस के पास कोई दलील नही होगी. और जो कोई इस हाल मे मरा की उस की गरदन मे बैत (का तौक़) ना हो तो वोह जहालत की मौत मरा.” नबी (स्वललल्लाहो अलैहि वसल्लम) ने यह फर्ज़ किया है की हर शख्स की गर्दन मे बैत का तौक़ हो और जो इस हाल मे मरा की उस की गरदन मे बैत का तौक़ नही है तो गोया वोह जहालत की मौत मरा. और बैत सिर्फ और सिर्फ खलीफा की हो सकती है इसके अलावा और किसी की नहीं. आप (स्वललल्लाहो अलैहि वसल्लम) ने यह नही फरमाया की हर मुसलमान खलीफा की बैत करे, चुनाचे फर्ज़ सिर्फ हर मुसलमान की गरदन पर बैत का तौक़ का होना है. यानी ऐसे खलीफा का होना जुस की बौत की जा सके. खलीफा के मौजूद होने से हर मुसलमान की गरदन पर मे बैत का तौक़ होता है चाहे वोह बा-फौल बैत ना भी करे. चुनाचे यह हदीस इस बात पर दलालत करती है की खलीफा का तक़र्रूर फर्ज़ है ना की हर फर्द का उस को बैत करना.
मुस्लिम (रहमतुल्लाहि अलैह) ने एराज से और उन्होने अबु हुरैराह से रिवायत किया है की नबी (स्वललल्लाहो अलैहि वसल्लम) ने फरमाया: खलीफा ढाल है जिसके पीछे से लडा जाता है और उसी के ज़रिए तहफ्फुज़ हासिल होता है.
मुस्लिम (स्वललल्लाहो अलैहि वसल्लम) ने अबूहाज़म से रिवायत किया है की उन्होने के कहा, “ मै पांच साल तक अबु हुरैराह की सोहबत मे रहा. मैने उन्हें नबी (स्वललल्लाहो अलैहि वसल्लम) से बयान करते हुए सुना के आप (स्वललल्लाहो अलैहि वसल्लम) ने फरमाया: “बनीइस्राईल की सियासत अम्बिया किया करते थे. जब कोई नबी वफात पाता तो दूसरा नबी उस की जगह ले लेता, जबके मेरे बाद कोई नबी नही है, बल्कि बडी कसरत से खुलफा होंगे. सहाबा मे पूछा: आप हमें क्या हुक्म देते है? आप (स्वललल्लाहो अलैहि वसल्लम) ने फरमाया, “तुम एक के बाद दूसरे की बैत को पूरा करुं और उन्हें उन का हक़ अदा करो, क्योकि अल्लाह तआला उन से उन की रिआया के बारे मे पूछेगा, जो उस ने उन्हें दी.”
सहीह मुस्लिम मे इबने अब्बास रसूलल्लाह (स्वललल्लाहो अलैहि वसल्लम) से रिवायत करते है कि आप ने फरमाया: “जिसने अपने अमीर की किसी चीज़ के ना पसन्द किया तो लाज़िम है की वोह उस पर सब्र करे, क्योकि लोगों मे से जिस ने भी अमीर की इताअत से बालिश्त बराबर भी खुरूज किया और वह उस हालत मे मर गया तो वह जहालत की मौत मरा”.
इन अहादीस मे रसूलुल्लाह (स्वललल्लाहो अलैहि वसल्लम) ने खबर दी है के मुसलमानो के हुक्मरान होंगे और उनमे खलीफा की यह सिफ्फत भी बयान की गई है के वोह ढाल यानी हिफाज़त का ज़रिया है. रसूलल्लाह (स्वललल्लाहो अलैहि वसल्लम) का ईमाम को ढाल कहना इमाम की मौजूदगी के फवाईद बताना है. चुनाचे इस मे तलब है. क्योंकी अल्लाह और रसूल की तरफ से किसी चीज़ की खबर अगर मज़म्मत के तौर पर हो तो उस को तर्क करना मतलूब होता है यानि वोह “नही” होता है. और अगर इसमे मदह (तारीफ) हो तो वह अमल मतलूब होता है. पस अगर वोह फअल मतलूब भी हो और उस पर किसी हुक्मे शरई का इन्हसार भी हो और फअल के ना करने की सूरत मे हुक्मे शरई के ज़ाया होने क अन्देशा भी हो, तो यह तलब जाज़िम (फर्ज़) होगा. इन अहादीस मे यह भी बयान किया गया है की मुसलमानो के सियासतदां खलीफा ही होगें. इस का मतलब यह है की उन का क़याम मतलूब है. और इस मे यह भी है के मुसलमानो के लिये सुल्तान (शरई ईख्तियार के हामिल शख्स) से अलहेदगी इख्तियार करना हराम. और इस मे इस की तरफ इशारा भी है की मुसलमानो पर अपने लिये एक ऐसा सुल्तान मुक़र्रर करना वाजिब जो उन पर इस्लाम नाफिज़ करे. इसके अलावा नबी (स्वललल्लाहो अलैहि वसल्लम) ने खुलफा कि इताअत और उन की खिलाफत मे तनाज़ा करनी वालों से क़िताल का हुक्म दिया है. चुनाचे मुस्लिम ने नबी (स्वललल्लाहो अलैहि वसल्लम) से रिवायत की है के आप ने फरमाया:
“और जो शख्स किसी इमाम (खलीफा) की बैत करे तो उसे अपने हाथ का मआमला और दिल का फल दे दे (यानी सब कुछ उस के हवाले कर दे) फिर उसे चाहिये के वोह हस्बे इस्तिताअत उस की इताअत भी करे. अगर कोई दूसरा शख्स आऐ और पहले खलीफा से तनाज़ा करे तो दूसरा शख्स आऐ और पहले खलीफा से तनाज़ा करे तो दूसरे की गरदन उडा दो.”
इमाम की इताअत का हुक्म उस की इक़ामत का भी है और उस के साथ झगडने वाले के साथ जंग करने का हुक्म खलीफा के हमेशा एक होने पर हतमी (तलब जाज़िम) हुक्म के लिए वाज़ह क़रीना है.
खिलाफत की इक़ामत की फर्ज़ियत की दलील इजमाऐ सहाबा से
जहां तक इजमाऐ सहाबा की बात है तो तमाम सहाबा (रिज़वानुल्लाहे अलैयहिम अजमईन) रसूलुल्लाह (स्वललल्लाहो अलैहि वसल्लम) की वफात के बाद ईसी मक़सद के लिये खलीफा मुक़र्रर करने पर इजमा किया और अबूबकर की खिलाफत पर जमा हो गये, फिर उमर (रज़िअल्लाहो अन्हो) कि खिलाफत पर और उन की वफात के बाद उस्मान की खिलाफत पर. इस मसअले पर इजमाऐ सहाबा की ताकीद इस बात से ज़ाहिर होती है के वह आप (स्वललल्लाहो अलैहि वसल्लम) की वफात के बाद आप के लिये खलीफा मुक़र्रर करने मे मसरूफ हो गये और आप की तदफीन मे ताखीर की. बावजूद इसके के वफात के बाद मय्यत को दफन करन फर्ज़ है, और जिन लोगों पर इस मय्यत को दफन करना फर्ज़ है उन का तदफीन से पहले किसी और काम मे मशगूल हो जाना हराम है. चुनाचे जिन सहाबा (रिज़वानुल्लाहे अलैयहिम अजमईन) पर आप (स्वललल्लाहो अलैहि वसल्लम) की तदफीन फर्ज़ थी उनमे से कुछ खलीफा की तक़र्रूरी मे मशगूल हो गऐ जब के दूसरे सहाबा ने इस पर किसी किस्म का कोई ऐतराज़ नही किया और वोह सब दो रातो की ताखीर के बाद रसूलल्लाह (स्वललल्लाहो अलैहि वसल्लम) की तदफीन मे शरीक हुऐ. हलांकि वो इंकार भी कर सकते थे और आप (स्वललल्लाहो अलैहि वसल्लम) को दफन भी कर सकते थे. तो यह इजमा था मय्यत को भी छोड कर पहले खलीफा के तक़र्रुरी पर लगे रहने पर. यह सिर्फ इसलिये हुआ की खलीफा का तक़र्रुर मय्यत की तदफीन से ज्यादा अहम था (बडा फरीज़ा था) और तमाम सहाबा ने अपनी पूरी ज़िन्दगी मे खलीफा के तक़र्रुर पर इजमा किया. इसके बारे मे इख्तिलाफ हुआ की खलीफा कौन होगा? लेकिन इसके बारे मे कभी इख्तिलाफ नही हुआ की खिलाफत फर्ज़ भी है कि नही. न रसूलल्लाह (स्वललल्लाहो अलैहि वसल्लम) के विसाल के मौके पर और ना ही किसी खलीफा की वफात के वक्त पर. चुनाचे खलीफा के तक़र्रुर के बारे मे इजमाऐ सहाबा एक वाज़ह और मज़बूत दलील है.
यह बात तय शुदा है की दुनिया और आखिरत से मुताल्लिक़ ज़िन्दगी के हर पहलू मे शरई अहकामात को नाफिज़ करना मुसलमानो पर फर्ज़ है. उसकी दलील क़तई अलसुबूत भी है और क़ताई अद्दलाला भी. यह एक साहिबे ईख्तियार हाकिम के बगैर मुमकिन नहीं. और शरई क़ायदा यह है कि “जिस चीज़ के बगैर कोई फ़र्ज अदा नहीं होता वोह भी फ़र्ज है” चुनाचे ख़लीफा के तक़र्रुर की फ़र्ज़ियत इस उसूल से भी साबित है.
यह दलाइल बड़े सरीह और वाज़ेह हैं कि मुसलमानों पर अपने में से एक सुल्तान (शरई ईख्तियार का हामल शख्स) और इस्लामी हुकूमत को क़ायम करना फ़र्ज है और यह दलाइल उस मसले पर भी वाज़ह और सरीह हैं कि एक साहिबे इख्तियार और साहिबे हुकूमत ख़लीफा का तक़र्रुर फ़र्ज है जो शरई अहकामात के निफाज़ के लिये भी हो न कि सिर्फ़ इख्तियार और हुकूमत के लिये. उसको समझने के लिये रसूलुल्लाह (स्वललल्लाहो अलैहि वसल्लम) के उस क़ौल पर ग़ौर करें जिसे मुस्लिम ने अोफ़ बन मालिक से नक़ल किया है, “तम्हारे लिये बेहतरीन ईमाम वोह हैं जिनसे तुम मुहब्बत करो और वोह तुमसे मुहब्बत करे, वोह तम्हारे लिये दुआऐं करें और तुम उनके लिये दुआऐं करो. और तम्हारे बदतरीन ईमाम वोह हैं जिनसे तुम बुग्ज़ रखो और वह तुमसे बुग्ज़ रखें. तुम उन पर लानते भेजो और वह तुम पर लानते भेजे. उस पर आप से सवाल किया गया: क्या हम ऐसी सूरत में बज़ोर शमशीर उन्हें हटा न दें?” आप (स्वललल्लाहो अलैहि वसल्लम) ने फरमाया, “उस वक्त तक नहीं जब तक कि वह तुम्हारे दरमियान नमाज़ क़ायम रखें. और अगर तुम अपने हुक्मरानों मे कोई नापसन्दीदा चीज़ देखो तो सिर्फ़ उसी चीज़ को नापसन्द करो. ईताअत से हाथ न खेंचो.”
यह हदीस बेहतरीन और बदतरीन ईमामों के बारे में ख़बर देने में वाज़ह है और जब तक वह दीन को क़ायम रखें उस वक्त तक उनके खिलाफ़ तलवार उठाना हराम है. क्योंकि ईक़ामते नमाज़ ईक़ामते दीन और उसके अहकाम से जुडा हुआ है. पस इस्लाम के अहकाम नाफिज़ करने और इस्लाम को फैलाने के लिये ख़लीफा का तक़र्रुर मुसलमानों पर फ़र्ज है और यह ऐसे शरई नुसूस से साबित है कि उसमें किसी क़िस्म का कोई शक व शुबाह नहीं. इससे बड़ कर यह कि अल्लाह तआला ने मुसलमानों पर इस्लामी अहकामात के निफाज़ और मुसलमानों की सरज़मीन की हिफ़ाज़त को फ़र्ज क़रार दिया है. अलबत्ता यह फ़र्ज़े किफाया है. अगर बाज़ लोग इसके क़याम करने की कोशिश करने के बावजूद भी इसे क़ायम न कर सके तो वह तमाम मुसलमानों पर बतौर फ़र्ज बाक़ी रहेगा. और किसी मुसलमान के सर से इस फर्ज़ की अदायगी का बोझ उस वक्त तक नहीं हठ सकता जब तक कि मुसलमान ख़लीफा के बग़ीर रहेगे. ख़लीफातुल मुसलिमीन के क़याम से किनाराकशी इख्तियार करना सबसे बड़ा गुनाह है क्योंकि यह इस्लामी फ़राईज़ में से एक ऐसे फ़र्ज की अदाईगी में कोताही करना है जिस पर न सिर्फ इस्लामी अहकामात के निफाज़ का इनहसार है बल्कि कारज़ारे हयात में इस्लाम का वजूद भी इसी का मोहताज है. अगर तमाम मुसलमान ख़लीफतुल मुस्लमीन के तक़र्रुर का काम छोड़ कर बैठ जाऐ तो सब सख्त गुनहगार होंगे. अगर वह सब उस कोताही पर इकठ्ठे होगे तो दुनिया भर के तमाम मुसलमान फ़रदन फ़रदन गुनहगार ठहरेंगे. और अगर कुछ लोग ख़लीफा के तक़र्रुर के लिये उठ खड़े हों और बाक़ी न खड़े हों तो खड़े होने वालों से तो ग़ुनाह हठ जाऐगा अलबत्ता उस वक्त तक उन पर फ़र्ज बाक़ी रहेगा जब तक कि ख़लीफा का तक़र्रुर नहीं हो जाता. क्योंकि किसी फर्ज़ की अदाईगी के लिये जद्दोजहद में मशग़ूलियत उसकी अदाईगी में ताख़ीर या अदा न होने के बावजूद उन पर से गुनाह उठ जाता है. क्योंकि उसकी अदाईगी जद्दोजहद ही से मुमकिन है. लेकिन किसी ज़बरदस्त रुकावट ने उन्हें उस काम की अदाईगी से रुकने पर मजबूर कर दिया. जहां तक उन लोगों का ताल्लुक़ है जो फर्ज़ की अदाईगी वाले काम ही नहीं करते तो वह एक ख़लीफा के जाने के तीन दिन बाद से ले कर अगले ख़लीफा के तक़र्रुर तक गुनहगार होंगे. क्योंकि अल्लाह तआला ने उन पर यह फर्ज़ अायद किया और उन्होने न तो उसको अदा किया न ही उसकी अदाईगी के लिये वह काम किया जो उस फर्ज़ की अदाईगी का ज़रिया बन सके. यही वजह है कि वह दुनिया व आखिरत में अल्लाह की तरफ़ से अज़ाब और रुसवाई के हक़दार ठहरेंगे. ख़लीफा के क़याम और उसके लिए ज़रुरी अामाल को अदा न करने की बदौलत आम मुसलमानों के गुनहगार होने का सबब निहायत वाज़ह है क्योंकि जब कोई मुसलमान अल्लाह की तरफ़ से अायद करदा किसी भी फर्ज़ की अदाईगी में कोताही करे तो वह सज़ा के क़ाबिल होता है. खास तौर पर एक ऐसा फर्ज़ जिस के ज़रिये दूसरे फ़राइज़ का निफाज़ होता हो, जिस के ज़रिये इस्लाम के अहकामात क़ायम हो रहे हों और चारो तरफ अल्लाह का दीन सरबुलन्द हो रहा हो.
इस्लामी खिलाफ़त सिर्फ़ उसी वक्त क़ायम समझी जा सकती है जब उसमे तमाम निज़ाम इस्लाम से ही अखज़ किये गये हो और अथोरिटि मुस्लमानो के हाथ मे हो. खिलाफ़त मे इक़तसादी निज़ाम , हुकुमती निज़ाम, मुआशरती निज़ाम, निज़ामे अद्ल, खारजा पोलिसी और तलीमी पोलिसी, मुकम्मल तौर पर शरई मसदर से अखज़ शुदा होती है. आईऐ, फ़रदन फ़रदन इन् निज़ामो के अहम नुकात पर नज़र डाले.

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